क्रिमिनल केस ट्रायल
क्रिमिनल केस ट्रायल दो प्रकार के होते है,
- पुलिस FIR
- परिवाद (Complaint Case)
पहला केस वह होता है जो कि पुलिस FIR के आधार पर होता है, दूसरा केस है कंप्लेंट केस (परिवाद), जिसमें भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 210 और 223 के तहत कोर्ट में कंप्लेंट केस (परिवाद) दायर किया जाता है,
यहाँ हम सिर्फ पुलिस द्वारा की गई FIR केस के बारे में बात करेंगे, इसको हम तीन भागो में बाटेंगे -
पहला भाग – पुलिस द्वारा कोर्ट चार्जशीट फाइल / चालान पेश करने से पहले का है जिसमें पुलिस इंवेस्टिगेशन होती है
दूसरा भाग - कोर्ट में केस ट्रायल का तथा
तीसरा भाग - जजमेंट, जजमेंट के बाद अपील और दया याचिका का है।
पहला भाग - पुलिस इंवेस्टिगेशन
अपराध होने के बाद सबसे पहला काम होता है उस अपराध की सूचना पुलिस को देना, जो व्यक्ति अपराध की सूचना देता है वह शिकायतकर्ता कहलाता है, जिस व्यक्ति के साथ अपराध किया जाता है है वह Victim / फरियादी / पीड़ित कहलाता है, और जो व्यक्ति अपराध करता है वह Accused / आरोपी/अभियुक्त कहलाता है। पुलिस को अपराध की सूचना देने वाला व्यक्ति पीड़ित नहीं भी हो सकता है, जैसे कोई व्यक्ति, जिसने सिर्फ अपराध होते हुए देखा हो लेकिन वह व्यक्ति उस अपराध से पीड़ित न हो अर्थात उसका हिस्सा ना हो, वह व्यक्ति भी शिकायतकर्ता हो सकता है।
पुलिस स्वयं, किसी भी अपराध की शिकायतकर्ता हो सकती है। जैसे की कोई पुलिस ऑफिसर ड्यूटी या गस्त पर है और वो कोई अपराध होते हुये देखे तो वह पुलिस ऑफिसर स्वयं भी शिकायतकर्ता हो सकता है, इसके अलावा पुलिस को अपने किसी मुखबिर (खबरी) से कोई सूचना मिले या फिर कोई अपनी पहचान बताये बिना पुलिस को सूचना दे, तो उस अपराध में भी वो पुलिस ऑफिसर ही शिकायतकर्ता होगा।
जब भी, पुलिस को अपराध की सूचना मिलती है उसका पहला काम होता है BNSS की धारा 173 के तहत FIR रजिस्टर्ड (दर्ज़) करना, अगर समय नहीं है और मौके (घटना स्थल पर पहुंचना जरूरी है तो पुलिस पहले मौके पर जाकर हालात काबू में करेगी, फिर FIR दर्ज़ करेगी।
संज्ञेय अपराध (गंभीर अपराध) के मामले में यदि आरोपी पकड़ाया नहीं गया है, तो सबसे पहले पुलिस आरोपी को ढूंढकर BNSS की धारा 35 के तहत बिना वारंट के उसे अरेस्ट करती है, पुलिस BNSS की धारा 49 के तहत उस आरोपी की तलाशी करती है, या फिर BNSS की धारा 185 के तहत पुलिस उस स्थान की भी तलाशी कर सकती है जहां पर वह अपराधी पकड़ाया गया है। जो भी सामान उस आरोपी के पास होता है, सिर्फ उसके कपड़ो को छोड़कर, वह सभी सामान पुलिस द्वारा अपनी अभिरक्षा (Custody) में रख लिया जाता है अर्थात जप्त कर लिया जाता है, उस सामान की जप्ति रसीद भी पुलिस द्वारा आरोपी को दी जाती है।
इसके बाद पुलिस BNSS की धारा 36 (ग) के तहत उस आरोपी के किसी भी परिचित या रिश्तेदार व्यक्ति को आरोपी के गिरफ्तार होने की खबर करेगी, अगर जरूरी हुआ तो आरोपी के दिए गये पते पर किसी पुलिस ऑफिसर द्वारा जाकर उसके घरवालों को इत्तिला की जाएगी।
पुलिस FIR करने से पहले या फिर FIR करने के बाद जैसा भी उचित समझे वैसे, अपराधी (आरोपी/अभियुक्त) एवं पीड़ित व्यक्ति को BNSS की धारा 51, 52, 53, 184 एवं 397 के तहत मेडिकल परीक्षण के लिए पास के सरकारी या प्राइवेट हॉस्पिटल में लेकर जाएगी, BNS की धारा 30 के अनुसार भी एक डॉक्टर, घायल या रोगी व्यक्ति का उसकी सहमति के बिना उसके जीवन की रक्षा लिए उसका इलाज़ कर सकता है। BNS की धारा 200 के तहत भी, कोई भी हॉस्पिटल पीड़ित व्यक्ति का इलाज करने मना नहीं कर सकता। यदि मामला रेप का है, तो BNSS की धारा 184 (6) के तहत, डॉक्टर को रेप की जांच की रिपोर्ट, 7 दिन के अंदर पुलिस थाने भेजनी पड़ेगी।
इन सब कार्यवाहियों के बाद अगर पुलिस को लगता है की जिस धारा में केस बनता है वो धारा जमानतीय है या फिर पुलिस के पास आरोपी के विरुद्ध पर्याप्त सबूत नहीं हैं, तो दोनों ही स्थितियों में आरोपी को BNSS की धारा 478 के तहत पुलिस थाने से ही जमानत पर छोड़ दिया जाएगा, इसके लिए पुलिस द्वारा किसी प्रकार की जमानती की या बेल बॉन्ड की मांग भी आरोपी से की जा सकती है, अगर अपराध गैर जमानतीय धाराओं में है उदाहरण के लिए जैसे कि BNS की धारा 64 (रेप) या धारा 103 (हत्या), तो BNSS की धारा 58 तहत पुलिस आरोपी को अरेस्ट करने के 24 घंटे के अंदर मजिस्ट्रेट के सामने पेश करेगी।
{नोट- ऐसे अपराध जिनमें 7 वर्ष तक की सजा है, उसमें पुलिस किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं कर सकती, पुलिस द्वारा उस व्यक्ति को थाने से सिर्फ नोटिस देकर छोड़ दिया जाएगा, और जब पुलिस कोर्ट में चालान पेश करेगी उस दिन उस व्यक्ति को सीधे कोर्ट में हाजिर होना होग और कोर्ट से जमानत लेनी होगी। यह दिशा निर्देश माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा Arnesh Kumar vs State Of Bihar & Anr, AIR 2014 SC 2756, 2 July, 2014 को जारी किए गए हैं। }
इसके बाद पुलिस, मजिस्ट्रेट से आरोपी की पुलिस कस्टडि मांगती है, पुलिस कस्टडि का मतलब है कि आरोपी को थाने ले जाकर उससे पूछताछ करना, जैसे कि - घटना कैसे हुई, कहाँ हुई, हथियार कहा छुपा के रखा है, अपराध में कौन कौन शामिल था आदि। BNSS की धारा 187 के तहत यह मजिस्ट्रेट के ऊपर है कि आरोपी को पुलिस कस्टडी में भेजना है या नहीं (Supreme Court of India - Manubhai Ratilal Patel V/s State Of Gujarat & Ors on 28 September, 2012), यदि पुलिस कस्टडि में भेजना है तो BNSS की धारा 187 (3) के तहत पुलिस कस्टडि 15 दिन से अधिक नहीं होगी, और यदि पुलिस कस्टडि में नहीं भेजना होगा तो फिर मजिस्ट्रेट द्वारा आरोपी को ज्यूडिसियल कस्टडि में जेल भेज दिया जाएगा, फिर आरोपी को जमानत देने की पॉवर मजिस्ट्रेट के पास ही होगी। लेकिन यदि केस सेशन कोर्ट (सत्र न्यायालय) द्वारा विचारणीय है जैसे कि हत्या या रेप का मामला, तो मजिस्ट्रेट BNSS की धारा 232 के तहत प्रक्रिया पूरी करने के बाद केस को सेशन कोर्ट के पास भेज (सुपुर्द / Commit) देंगे। क्योंकि BNSS की धारा 23 के तहत मजिस्ट्रेट के पास केवल उन अपराधों का विचारण करने की शक्ति है जिनमें केवल 3 वर्ष तक की सजा हो या 10,000 रुपए जुर्माना या सामुदायिक सेवा (Community Service) की सजा है, जबकि BNSS की धारा 22 के तहत सत्र न्यायधीश (Session Judge) के पास मृत्यु दंड देने तक की शक्ति है, इसलिए गंभीर धाराओं में किए गए अपराधों की सुनवाई मजिस्ट्रेट नहीं कर सकते और इसीलिए मजिस्ट्रेट को केस, सत्र न्यायालय के पास भेजना (सुपुर्द / Commit) पड़ता है।
आरोपी द्वारा जमानत या अग्रिम जमानत लेना
अगर कोई आरोपी गिरफ्तार नहीं हुआ है या फिर भाग गया है, वह आरोपी अपने अधिवक्ता के माध्यम से BNSS की धारा 482 के तहत कोर्ट में “अग्रिम जमानत (Anticipatory bail) ” का आवेदन दायर कर जमानत ले सकता है या फिर पुलिस द्वारा कोर्ट चार्जशीट दायर हो जाने के बाद, पुलिस या कोर्ट के सामने समर्पण करके BNSS की धारा 480 के तहत मजिस्ट्रेट की कोर्ट से और धारा 483 के तहत सत्र न्यायाधीश की कोर्ट से "नियमित जमानत ( Regular Bail)” ले सकता है, शिकायतकर्ता या पीड़ित (Victim) व्यक्ति चाहे तो उसी कोर्ट में बेल में आपत्ति या फिर उस बेल के खिलाफ उपर की कोर्ट (सेशन कोर्ट / हाई कोर्ट / सुप्रीम कोर्ट) में BNSS की धारा 483 (3) के तहत बेल कैंसिलेशन फाइल कर सकते है, जिससे की आरोपी को जमानत ना मिल सके और यदि मिल गई है तो जमानत रद्द करवाई जा सके।
पलिस द्वारा केस में इन्वेस्टीगेशन करना सबूत इकठ्ठा करना
ऊपर बताई गयी सभी कार्यवाहियाँ और FIR रजिस्टर्ड होने के बाद पुलिस का काम होता है कि वो केस की निष्पक्ष जाँच करे और कोर्ट में चार्जशीट फाइल करे, जो व्यक्ति (पुलिस - SDOP / TI / SI) केस की जांच करता है, उसे I. O. अर्थात इन्वेस्टीगेशन ऑफिसर कहते है, IO ही केस की जाँच करता है, घटना की जगह का नक्शा बनवाता है (पटवारी द्वारा), जरुरी कागजात और सबूत व्यक्तियों से या डिपार्टमेंट से लेता है, गवाहों के धारा 180 BNSS में बयान दर्ज करता है आदि।
अगर I. O. जांच में यह पाता है की शिकायतकर्ता की शिकायत झूठी है या पर्याप्त आधार अथवा साक्ष्य नहीं कि आरोपी के विरुद्ध FIR दर्ज़ की जाये, तो पुलिस BNSS की धारा 189 के तहत False Report (FR) / Closer Report कोर्ट के सामने फाइल करके केस को खत्म कर सकता है, [ ऐसी स्थिति शिकायतकर्ता या पीड़ित व्यक्ति चाहे तो प्रोटेस्ट पेटिसन (परिवाद) पर कोर्ट में BNSS की धारा 210 (1) के तहत केस को आगे चला सकता है और साथ ही BNSS की धारा 173 (4) के तहत मजिस्ट्रेट से आवेदन कर सकता है कि मजिस्ट्रेट पुलिस को FIR दर्ज़ करने के आदेश दें।]
अगर, ऐसा नहीं है और पुलिस के पास आरोपी के खिलाफ पर्याप्त सबूत हैं, तो फिर, आरोपी के खिलाफ, पुलिस द्वारा कोर्ट में Chargesheet (चालान / अंतिम प्रतिवेदन / इस्तगासा / अभियोग पत्र) फाइल कर दी जाती है। यदि आरोपी के पास भी पुख्ता सबूत हैं कि पुलिस द्वारा उसे झूटा फसाया गया है और उसके ऊपर गलत रूप से FIR दर्ज़ कर दी गई है, तो FIR निरस्त (Quash FIR) कराने के लिए BNSS की धारा 528 ( उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियाँ) के तहत आरोपी उच्च न्यायालय (High Court) में याचिका दायर कर सकता है, जिससे कि FIR निरस्त हो सके।
BNSS की धारा 187 (3) के तहत पुलिस द्वारा किसी भी क्रिमिनल केस में चार्ज शीट फाइल करने की समय सीमा 60 दिन या 90 दिन होती है, जो कि केस की धाराओं पर निर्भर करती है, जो केस बड़ी धाराओ में रजिस्टर्ड होते हैं अर्थात मृत्यु, आजीवन कारावास या 10 वर्ष से ऊपर की सजा के होते है ऐसे मामलों में 90 दिनों में पुलिस को कोर्ट में चार्जशीट फाइल करनी होती है, बाँकि अन्य सभी धाराओं में 60 दिन में पुलिस को चार्ज शीट फाइल करनी होती है, यदि पुलिस समय पर चार्जशीट दाखिल नहीं करती तो BNSS की धारा 187 + भारतीय संविधान अनुच्छेद 21 के तहत ही आरोपी को जमानत मिलने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। इस जमानत को डिफ़ॉल्ट बैल (Default bail) भी कहा जाता है। लेकिन ये समय सीमा का नियम तभी लागू होता है जब आरोपी जेल में हो और उसकी जमानत नहीं हुई हो, अगर आरोपी जमानत पर जेल से बाहर है तो पुलिस चार्ज शीट फाइल करने में 60 दिन या 90 दिन से ज्यादा समय भी लगा सकती है।
चार्जशीट में ये चीज़े शामिल होती है
क्रिमिनल केस ट्रायल की चार्ज शीट में ये चीजे शामिल होती है :- (1) दोनों पार्टियों, शिकायतकर्ता / पीड़ित और आरोपी का नाम, (2) अपराध की सूचना की प्रकृति, कि पुलिस को अपराध की सूचना कैसे मिली (3) शिकायतकर्ता / पीड़ित की शिकायत, जो शिकायत उसने की है, (4) पीड़ित और आरोपी की मेडिकल रिपोर्ट (5) आरोपी की गिरफ्तारी से सम्बन्धित पेपर (6) गवाहों के BNSS धारा 180 के बयान (7) आरोपी से जप्त किया हुआ हथियार या सामान ( 8 ) घटना स्थल का नक्शा, (9) अन्य कोई केस से सम्बन्धित पेपर, (10) BNSS की धारा 176 के तहत वीडियोग्राफ़्स और फोरेंसिक रिपोर्ट आदि।
दूसरा भाग (क्रिमिनल केस ट्रायल)
पुलिस द्वारा कोर्ट में चार्ज शीट (चालान) दायर करने के बाद आरोपी पर क्रिमिनल केस ट्रायल शुरू हो जाता है, यदि चार्ज शीट और बयानों को देखने के बाद मजिस्ट्रेट को लगता है कि आरोपी के ऊपर केस चलाने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है [अर्थात प्रथम दृष्ट्या मामला (Prima Facie Case) नहीं बन रहा है] जिस पर आरोपी के खिलाफ चार्ज लगाकर केस को आगे चलाया जा सकता है, तो मजिस्ट्रेट, आरोपी को BNSS की धारा 262 के तहत [ सेशन कोर्ट द्वारा BNSS की धारा 250 के तहत और परिवाद (Complaint Case) में मजिस्ट्रेट द्वारा BNSS की धारा 268 के तहत] उन्मोचित (Discharge) कर दिया जाता है और यदि मजिस्ट्रेट को लगता है कि केस चलाने के पर्याप्त आधार हैं तो फिर ट्रायल शुरू किया जाता है, सबसे पहले आरोपी को या उसके अधिवक्ता को चार्ज शीट की कॉपी दी जाती है, अगर कॉपी में कोई कमी है या चार्ज शीट से संबन्धित सभी दस्तावेज़ नहीं दिये गए हैं, तो आरोपी के अधिवक्ता BNSS की धारा 230 के तहत कोर्ट के सामने आवेदन करके उन दस्तावेजों की कॉपी कोर्ट से लेते है या फिर चार्ज शीट की कमियों को कोर्ट में बता कर ऑर्डर शीट पर लेखबद्ध करवाते है, जिससे कि वे बाते कल को केस के फाइनल आर्गुमेंट के समय आरोपी के खिलाफ नहीं जाएं। (आर्डर शीट वह होती है जिस पर पेशी के दिन कोर्ट में क्या कार्यवाही हुई, वह सब लिखा जाता है)
चार्ज फ्रेम
चार्जशीट के पेपर की कार्यवाही पूरी होने के बाद अर्थात आरोपी के अधिवक्ता को दस्तावेज़ (चार्जशीट की कॉपी) प्राप्त हो जाने के बाद, चार्ज पर बहस (Argument) होती है, इसके लिए एक पेशी नियत की जाती। चार्ज का मतलब होता है आरोपी पर धाराएँ लगाना, कि किस धारा में उस पर केस बनता है और किन धाराओं में उस पर केस चलना चाहिए, इसे " चार्ज फ्रेम" करना कहा जाता है। चार्जशीट को पढ़ने के बाद यदि कोर्ट को लगे की आरोपी पर चार्ज फ्रेम करना बनता है, लेकिन पुलिस ने जो धाराएँ लगाई हैं वह धाराएँ सही नहीं है तो कोर्ट BNSS की धारा 239 और 244 के तहत उन धाराओं को बदल कर नई धाराओं में भी चार्ज लगा सकती है। चार्ज फ्रेम किए जाने के बाद कोर्ट आरोपी से पूछती है कि, क्या उसे अपना गुनाह कबूल है, अगर वह अपना गुनाह कबूल कर लेता है तो उसे उसी वक्त या अगली पेशी पर सजा सुना दी जाती है और क्रिमिनल केस ट्रायल यही पर समाप्त हो जाता है।
लेकिन आमतौर पर आरोपी द्वारा गुनाह कबूल नहीं किया जाता और कोर्ट में आरोपी कहता है कि वह क्रिमिनल केस ट्रायल फेस (सामना) करेगा, तो फिर उस स्थिति में केस की सुनवाई शुरू हो जाती है / इसे ट्राइल प्रोग्राम भी कहा जाता है।
गवाही
क्रिमिनल केस ट्रायल शुरू होने के बाद इस स्टेज पर, पुलिस द्वारा चार्जशीट में दी गई गवाहों की लिस्ट के अनुसार भारतीय साक्ष्य अधिनियम 2023 की धारा 142 [मुख्य परीक्षण ( Chief) एवं प्रतिपरीक्षण (जिरह / Cross)] के तहत गवाहों की गवाही होती है। अभियोजन (पीड़ित पक्ष ) की ओर से जो गवाह होते हैं उन्हें PW (Prosecution Witness) और आरोपी पक्ष की और से जो गवाह होते हैं उन्हें DW (Defense Witness) कहा जाता है। यह गवाह क्रम बार होते हैं जैसे कि PW1, PW2, PW3...... तथा DW1, DW2, DW3.... आदि। और यदि इन गवाहों के द्वारा कोई सबूत कोर्ट में पेश किया जाता है तो उसे EX-P1, EX-P2, EX-P3..... तथा EX-D1, EX-D2, EX-D3, के रूप में प्रदर्शित (Exhibit ) कराया जाता है।
सबसे पहले विक्टिम (पीड़ित ) / शिकायतकर्ता की गवाही होती है, इसके बाद कोई पब्लिक विटनेस जैसे कि घटना के वक्त कोई चश्मदीद गवाह हो तो उसकी गवाही, इसके बाद पुलिस और डॉक्टर या फोरेंसिक लैब वालों की, जो भी केस के अनुसार दिए हो, सबसे लास्ट में I.O. यानि की इन्वेस्टीगेशन ऑफिसर की गवाही होती है,
पहले अभियोजन (पीड़ित पक्ष ) के अधिवक्ता (सरकारी वकील - ADPO / AGP) अभियोजन पक्ष के गवाहों का मुख्य परीक्षण [ Examination In Cheif] करते हैं, इसके बाद आरोपी के अधिवक्ता उसे बचाने के लिए अभियोजन पक्ष के गवाहों का मुख्य परीक्षण हो जाने के बाद उनसे जिरह / Cross करते हैं, इसे प्रति परीक्षण [Cross Examination] करना भी कहा जाता है, यहाँ ध्यान में रखने वाली बात यह है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम 2023 की धारा 151, 152 और 154 के तहत आरोपी के अधिवक्ता, अभियोजन पक्ष के गवाहों से ऐसा- बिना आधार के, कोई प्रश्न नहीं करेंगे। या फिर आइस अप्रशन भी नहीं करेंगे जिससे कि गवाहों के चरित्र पर आंच आए या वह अपमानित हों। यदि आरोपी के अधिवक्ता ऐसा कोई प्रश्न कोर्ट की अनुमति के बगैर पूछते हैं तो यह न्यायालय कि अवमानन (Contempt of court) कहलाएगा और ऐसी स्थिति में वह मजिस्ट्रेट या न्यायाधीश आरोपी के अधिवक्ता की रिपोर्ट, हाई कोर्ट या बार काउंसिल से कर सकते हैं। फिर आगे यदि अधिवक्ता के विरुद्ध कोई कार्यवाही करनी है तो हाई कोर्ट या बार काउंसिल करेंगे। इसलिए प्रति परीक्षण [Cross Examination] में इन बातों का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए।
{प्रति परीक्षण [Cross Examination] जो आरोपी के अधिवक्ता द्वारा किया जाता है, क्रिमिनल केस सबसे अहम भाग होता है इसी में आपके अधिवक्ता की काबलियत देखी जाती है कि वे केस को किस प्रकार अपने अनुसार मोड़ के आरोपी को बचा सकता।}
इसके बाद अभियोजन पक्ष के अधिवक्ता भी आरोपी पक्ष के गवाहों से इसी प्रकार गवाही कराते हैं।
यदि कोई नया तथ्य या बात, बाद में कोर्ट के सामने आती है तो भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 143 (3) के तहत फिर से गवाही कराई जा सकती है। इसे पुनः परीक्षण कहा जाता। अगर कोई अभियोजन पक्ष का गवाह या सरकारी गवाह अपने बयान से मुकर जाए या होस्टाइल हो जाए तो सरकारी वकील भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 157 के तहत खुद उस गवाह से जिरह / क्रॉस करते है, यह साबित करने के लिए कि वो गवाह जानबूझकर झूठ बोल रहा है और आरोपी को फायदा पंहुचाना चाहता है या आरोपी से मिल गया है। यदि कोई गवाह किसी प्रश्न का उत्तर देने से बच रहा है या मना कर रहा है तो कोर्ट चाहे तो भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 137 और 150 के तहत किसी गवाह को प्रश्न का उत्तर देने के लिए मजबूर भी कर सकती है,
अगर कोई पीड़िता लड़की / महिला ( रेप विक्टिम) है, और उसकी किसी मजिस्ट्रेट के सामने BNSS धारा 183 के बयान दर्ज़ हुये हैं और केस सेशन कोर्ट द्वारा विचारणीय है, तो उस मजिस्ट्रेट को भी, जिसके समक्ष पीड़िता के BNSS की धारा 183 के तहत बयान हुये हैं, उस मजिस्ट्रेट को गवाही के लिए सेशन कोर्ट द्वारा भारतीय साक्ष्य अधिनियम 2023, की धारा 127 के तहत बुलाया जा सकता है।
अभियोजन पक्ष की गवाही होने के बाद आरोपी पक्ष अपने बचाव के लिए अपनी गवाही करवा सकता है या फिर किसी और व्यक्ति की गवाही भी, इसमें वो कोई सबूत जो उसके पक्ष में हो तो उसको पेश करता है या फिर किसी व्यक्ति या संस्था - सरकारी या गैर सरकारी संस्था को कोर्ट द्वारा बुलवा कर पेश करवा कर अपना पक्ष रखता है। BNSS की धारा 530 के तहत गवाही, समन या वारंट भेजना आदि चीजें इलेक्ट्रोनिक माध्यम से भी की जा सकती हैं।
दोनों पक्षों (पीड़ित पक्ष एवं आरोपी पक्ष ) की गवाही के बाद BNSS की धारा 352 के तहत केस अंतिम बहस (Final Argument) में लग जाता है जिसमें दोनों पक्ष के अधिवक्ता अपने पक्ष समर्थन की बातें कोर्ट के सामने रखते हैं। अगर बहस में समय लगता है तो फिर उसे अगली पेशी पर पूरा किया जाता है। ये बहस लिखित रूप से भी दी जा सकती है जिसे अंतिम लिखित तर्क भी कहा जाता है।
जजमेंट
केस में बहस पूरी होने के बाद BNSS की धारा 392 और 393 के तहत कोर्ट द्वारा जजमेंट दिया जाता है, अगर आरोपी को बरी (दोष मुक्त/ Acquittal) कर दिया है तो ठीक है, नहीं तो फिर उसे सजा सुनाई जाती है।
दोषी को सजा सुनाने के लिए तारीख नियत की जाती है, अब वो फांसी, आजीवन कारावास, सश्रम कारावास, कारावास, फाइन ( जुर्माना भरने, सामुदायिक सेवा या फिर सिर्फ कोर्ट में सारा दिन खड़े रहने या अन्य किसी और प्रकार के काम करने की भी हो सकती है।
अगर कोर्ट को किसी केस में आरोपी को दोषी करार देते हुए मृत्यु दंड की सजा देनी होती है, तो वो ट्रायल कोर्ट (सेशन कोर्ट) सजा सुनाने से पहले, फांसी की सजा के कंफर्मेशन के लिए, फैसले की कॉपी BNSS की धारा 407 के तहत हाई कोर्ट भेजती है, हाई कोर्ट BNSS की धारा 409 के तहत या तो उस मृत्यु दंड की पुष्टि कर देती है या फिर मृत्यु दंड को दूसरी सजा में बदल सकती है जैसे कि आजीवन कारावास, और हाई कोर्ट बिना बिलंब किए मृत्यु दंड की पुष्टि या अन्य सजा के आदेश की कॉपी को BNSS की धारा 412 के तहत सेशन कोर्ट को वापिस भेज देती है। जब ट्रायल कोर्ट (सेशन कोर्ट) को फांसी के मामले में हाई कोर्ट से कंफर्मेशन मिल जाती है, तो वह आरोपी को फांसी की सजा सुना देती है, इसके बाद दोषी व्यक्ति हाई कोर्ट में अपील दाखिल कर सकता है कि उसे फांसी नहीं दी जाए इसमें वह केस में अपने मजबूत पहलुओ, अपनी समाजिक, पारिवारिक और आर्थिक मजबूरियों का हवाला देता है और सेशन कोर्ट द्वारा निर्णय में की गई गलतियों को हाई कोर्ट के सामने अधिवक्ता के माध्यम से रखता, लेकिन अगर फिर भी हाई कोर्ट उसकी मृत्यु दंड की सजा को अपील में कंफर्म (पुष्ट) कर दे तो वो इस निर्णय की अपील करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में जा सकता है। अपील पेंडिंग (लंबित) रहने के दौरान BNSS की धारा 430 के आरोपी अपीलीय कोर्ट में जमानत पर रिहा किए जाने के लिए आवेदन कर सकता है। अब यह अपीलीय न्यायालय के ऊपर है (हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट) कि आरोपी कि जमानत पर रिहा करना है या नहीं। यदि फांसी की सजा (मृत्युदंड) दी गई है तो BNSS की धारा 455 के तहत अपील का निर्णय आने तक उसकी फांसी रोक दी जाती है। अगर सुप्रीम कोर्ट से भी अपील खारिज हो जाए अर्थात सुप्रीम कोर्ट मृत्युदंड की सजा को बरकरार रखे तो ट्रायल कोर्ट (सेशन कोर्ट) उसे मृत्युदंड (फांसी) की सजा को कन्फर्म (पुष्टी) कर देती है।
अगर आरोपी की सजा उम्रकैद (आजीवन कारावास) या इससे कम की होती है तो फिर ट्रायल कोर्ट (सेशन कोर्ट) को हाई कोर्ट से कंफर्मेशन लेने की जरूरत नहीं होती।
तीसरा भाग (अपील)
अगर दोषी को सजा 3 साल या इससे कम की सुनाई गई है तो आरोपी को उसी कोर्ट से निर्णय सुनाने के दिन ही तुरंत बाद BNSS की धारा 430 (3) के तहत जमानत मिल जाती है। यदि सजा 3 साल से ऊपर की सुनाई गई है, फिर आरोपी को जेल जाना होता है, फिर वो उपर की कोर्ट (अपीलीय कोर्ट) में अपनी बेल (जमानत) के लिए आवेदन कर सकता है। मौत की सजा में परिसीमा अधिनियम (Limitation Act / मर्यादा अधिनियम) के Article 115 के तहत आरोपी के पास 30 दिन का समय होता अपील करने के लिए, जिस दिन से उसे मौत की सजा सुनाई गयी थी और बाँकी अन्य प्रकार की सजा में हाई कोर्ट में 30 दिन तथा किसी अन्य कोर्ट में 60 दिन का समय अपील करने के लिए आरोपी के पास होता है। इसी प्रकार मौत की सजा में, परिसीमा अधिनियम (Limitation Act / मर्यादा अधिनियम) के Article 133 के तहत सुप्रीम कोर्ट में Special Leave Petition दायर करने का समय 60 दिन होता है और अन्य अपराधों में 90 दिन ।
अगर आरोपी को मजिस्ट्रेट की कोर्ट से सजा मिली है तो आरोपी BNSS की धारा 415 के तहत उपर की कोर्ट जो कि सेशन कोर्ट / हाई कोर्ट या फिर सुप्रीम कोर्ट जो भी हो वहाँ अपील कर सकता है,
(मजिस्ट्रेट कोर्ट > सेशन कोर्ट > हाई कोर्ट > सुप्रीम कोर्ट )
शिकायतकर्ता /पीड़ित को लगे की आरोपी को सजा कम मिली है या दोषमुक्त हो गया है तो फिर वह शिकायतकर्ता / पीड़ित भी उपर की कोर्ट में आरोपी को ज्यादा सजा दिलाने की अपील BNSS की धारा 418 (राज्य सरकार) व 419 के तहत कर सकता है।
हालांकि, कुछ मामले ऐसे होते हैं जिनके तहत कोई अपील नहीं की जा सकती है। ये प्रावधान BNSS की धारा 295, धारा 416 और धारा 417 के तहत निर्धारित किए गए हैं।
दया याचिका (Mercy petition)
अगर दोषी व्यक्ति को फांसी की सजा सुनाई गयी है और हाई कोर्ट तथा इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में भी अपील ख़ारिज हो गयी हो, तो दोषी व्यक्ति, संविधान के अनुच्छेद 161 के तहत अपने राज्य के राज्यपाल (Governor) और राष्ट्रपति (President) के पास संविधान के अनुच्छेद 72 के तहत दया याचिका लगा सकता है।
पहले राज्यपाल को फांसी (मृत्यु दंड) की सजा माफ करने का अधिकार नहीं था, , केवल राष्ट्रपति ही फांसी (मृत्यु दंड) की दया याचिका पर विचार कर सकते थे, लेकिन Supreme Court द्वारा The State Of Haryana vs Raj Kumar @ Bittu on 3 August, 2021 के ऐतिहासिक निर्णय में राज्यपाल को भी यह शक्ति प्रदान हो गयी है।
पुनर्विचार याचिका (Review Petition) और उपचारात्मक याचिका (Curative Petition)
संविधान का अनुच्छेद 137, सुप्रीम कोर्ट को अपने निर्णयों पर पुनर्विचार करने तथा सुधारने की शक्ति देता है। संविधान के अनुच्छेद 137 के तहत दोषी व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट में रिव्यु पेटिसन (पुनर्विचार याचिका) लगा सकता है जिससे कि सुप्रीम कोर्ट अपने ही निर्णय पर दुबारा विचार कर सके। यदि रिव्यु पेटिसन (पुनर्विचार याचिका) में भी सुप्रीम कोर्ट अपना निर्णय कायम रखे और मृत्युदंड की सजा को बरकरार रखे, तो फिर दोषी व्यक्ति के पास आखिरी और अंतिम उपाय यह रहता कि वह दोषी व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट में उपचारात्मक याचिका (Curative Petition) दायर करे| Curative Petition शब्द की उत्त्पत्ति ‘Cure' शब्द से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ 'उपचार' होता है। उपचारात्मक याचिका में यह बताना आवश्यक होता है कि याचिकाकर्त्ता किस आधार पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती दे रहा है।
उपचारात्मक याचिका तब दाखिल की जाती है, जब किसी आरोपी की राष्ट्रपति के पास भेजी गई दया याचिका और सुप्रीम कोर्ट में रिव्यु पेटिसन (पुनर्विचार याचिका), दोनों ही खारिज कर दी जाती है। उपचारात्मक याचिका (Curative Petition) की उत्पत्ति, सुप्रीम कोर्ट द्वारा Rupa Ashok Hurra V/s Ashok Hurra & Anr. on 10 April, 2002 के केस में हुई। संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत उपचारात्मक याचिका (Curative Petition) सुप्रीम कोर्ट में लगाई जाती है। यदि उपचारात्मक याचिका (Curative Petition) भी खारिज हो जाए, तो फिर आरोपी को फांसी (मृत्यु दंड) की सजा से कोई नहीं बचा सकता, उसका मरना तय हो जाता है और इसी के साथ क्रिमिनल केस ट्रायल समाप्त हो जाता है।
यदि किसी व्यक्ति को झुठा फसाया गया है और उसके खिलाफ गलत FIR दर्ज़ कराकर उस व्यक्ति को गिरफ्तार करा दिया गया है एवं केस की सुनवाई के दौरान मजिस्ट्रेट को लगता है कि आरोपी व्यक्ति की गिरफ्तारी गलत थी। तो ऐसी स्थिति में मजिस्ट्रेट BNSS की धारा 399 के तहत फरियादी / पीड़ित व्यक्ति को यह आदेश कर सकते हैं कि फरियादी, बतौर हर्जाना आरोपी व्यक्ति को प्रतिकर राशि दे जो कि 1000/- रुपए तक का हो सकता है।
इस सभी प्रक्रियाओं के दौरान यदि आरोपी जमानत पर जेल से बाहर है, और किसी कारण वश पेशी पर कोर्ट नहीं जा पाता तो नीचे बताई गयी BNSS की धाराओं के अंतर्गत हाजिरी माफी या स्थायी हाजिरी माफी का आवेदन कोर्ट से कर सकता है -
पेशी में हाजिरी माफी :- अगर आरोपी, जिसका केस कोर्ट में चल रहा हो वो किसी कारण से उस दिन पेशी पर नहीं आ सकता है वो अपने अधिवक्ता के माध्यम से BNSS की धारा 355 के तहत कोर्ट में आवेदन करके उस दिन नहीं आने का कारण दे कर कोर्ट में जाने से बच सकता है, यदि वह ऐसा नहीं करता तो कोर्ट उसके विरुद्ध वारंट जारी कर देगी।
स्थाई हाजिरी माफी :- आरोपी अपनी कोई मजबूरी जैसे कि कोई बीमारी, वृद्धावस्था या कोर्ट से उसके घर की दूरी या अन्य सुरक्षा के कारणों का हवाला देकर वो अपने अधिवक्ता के माध्यम से BNSS की धारा 228 के तहत कोर्ट से स्थायी हाजिरी माफी (Permanent exemption) ले सकता है, इसमें उसे हर पेशी पर कोर्ट आने से छूट मिल जाती है, आरोपी को सिर्फ चार्ज फ्रेम करने के लिए और अंत में जजमेंट (निर्णय) के समय ही कोर्ट आना होता है।
यदि किसी वजह से मजिस्ट्रेट या सत्र न्यायाधीश छुट्टी पर हैं तो केस Proper Order की स्थिति में आ जाता है। अर्थात जब मजिस्ट्रेट या सत्र न्यायाधीश छुट्टी से वापिस आए तो केस को किस कार्यवाही के लिए आगे बढ़ाना है। यह आदेश मजिस्ट्रेट या सत्र न्यायाधीश छुट्टी से वापिस आने के बाद स्वयं करते हैं, इसलिए केस की इस स्थिति को Proper Order (समुचित आदेश) कहा जाता है।
ट्राइल के बीच में केस खत्म करने के उपाय
राजीनामा – यदि पीड़ित / शिकायतकर्ता और आरोपी के बीच समझौता हो जाता है, तो BNSS की धारा 359 में बताए गए नियमों के तहत राजीनामा करके केस समाप्त कर सकता है।
प्ली बार्गेनिंग (सौदा अभिवाक) – यदि राजीनामा नहीं होता तो BNSS की धारा 290 के तहत प्ली बार्गेनिंग (सौदा अभिवाक) का आवेदन देकर आरोपी अपनी सजा कम (एक चौथाई) करवाने के लिए अधिवक्ता के जरिये आवेदन कर सकता है। (प्ली बर्गेनिंग सिर्फ उन धाराओं के अपराध के लिए ही है जिनमें 7 वर्ष तक की सजा है)
रेप और हत्या जैसे केस में यदि अभियोजन पक्ष के सभी गवाह अपने बयान बदल दें और आरोपी के पक्ष में गवाही दे दें, तथा आरोपी के खिलाफ कोई पुख्ता सबूत भी न हो जैसे कि मेडिकल रिपोर्ट, जप्ति या आरोपी की घटना के समय उपस्थिती आदि, तो ऐसी स्थिति में भी आरोपी को दोषमुक्त किया जा सकता है।
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